आलोचनाएँ को खनन करना,
प्रश्नो की कटार से ?
छिपा लो मन में व्यथा ।
आलोचनाएँ की क़तार से ।
इस पूस की रात को ,
न जाने कैसी आह लगी?
ठंड भरी इस ठाठ को,
जाने कब ओलों से व्याह लगी?
हुआ हूँ ! जन्मा ऐसी रातों में,
तो जीवन न ठिठुरेगा ।
रुक न पाये कदम कभी यह,
क्यूँ न? पगडंडी की राह लगी।
विनीत राम रंजन कुमार